HomeArchivesप्राचीन वर्ण व्यवस्था बनाम वर्तमान जातिवाद

प्राचीन वर्ण व्यवस्था बनाम वर्तमान जातिवाद

इस प्रकार हम देखते हैं कि अतीत की यात्रा करने के फलस्वरूप हमें अपने मूल में भारतीयता और मानवीयता के ही दर्शन होते हैं

वर्तमान समय में जब जातिवादी खेमेबाजी ने सुरसा के मुंह की तरह भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय को लगातार निगलने का प्रयास शुरू कर दिया है। हम भारतीयों के अंदर से सामाजिक समरसता, समन्वयात्मकता और सहअस्तित्व की भावना का लोप होता जा रहा है और इसके फलस्वरुप भारतीय समाज का ताना बाना लगातार कमजोर होता जा रहा है। वर्तमान समय में जाति व्यवस्था को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण का सबसे बड़ा कारण माना जाता है। भारतीय समाज में राजनीतिक समानता तो है, लेकिन जमीनी धरातल पर हम देखते हैं कि निम्न वर्गों को अभी भी सामाजिक और आर्थिक समानता के लिए काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इस विकट स्थिति में बौद्धिक संपन्न युवाओं का यह दायित्व बनता है कि इस जाति व्यवस्था के मूल स्वरूप को प्राचीन भारतीय ज्ञान के आलोक में समझने का प्रयास करें और कालांतर में वर्ण व्यवस्था में उत्पन्न हुई विषमताओं एवं विद्रूपताओं को समझकर वर्तमान समय में जातिगत व्यवस्था को भारतीय समाज की कसौटी पर कसे, जिससे जातीय वैमनस्यता एवं जनमानस में बढ़ रही कटुता का सही-सही परीक्षण करके उसका निदान उदार मानव प्रेम में संभव हो सके। इसी क्रम में प्राचीन भारत में मौजूद वर्ण व्यवस्था को समझने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। प्राचीन काल में वर्ण व्यवस्था जन्मना आधारित ना होकर कर्म आधारित थी। मनुस्मृति सामाजिक व्यवस्था को संचालित करने वाला आदि ग्रंथ था, जो वर्ण व्यवस्था की आधारभूमि है, जिस पर तमाम प्रकार के मिथ्या आरोप लगाए जाते रहे हैं।

मनुस्मृति में मनु ने लिखा है कि “जन्मना जायते शुद्र: संस्कारात् द्विज उच्यते” अर्थात प्रत्येक मनुष्य जन्म के समय शूद्र रूप ही होता है, संस्कार पश्चात वह द्विज होता हैं वर्ण व्यवस्था में कोई महान और कोई हीन नहीं है। समाज की व्यवस्था को गतिशील रखने के लिए समस्त कर्मों को करने वाले व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। वर्ण की इस व्यवस्था का अपने प्राचीन रूप में जन्म से कोई संबंध नहीं है। जन्म से कोई ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र नहीं होता है। भारतीय दृष्टि में प्रत्येक मनुष्य असीम संभावनाओं का स्वामी है और उन संभावनाओं के द्वार खोलना ही वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य रहा है। सभ्यता के विकास क्रम में सामाजिक विकास के रूप में जाति व्यवस्था का उदय हुआ और कालांतर में इस जाति व्यवस्था ने लोगों के अंदर वैमनस्यता एवं ईर्ष्या का भाव भर दिया। श्रीमद्भगवद्गीता के चौथे अध्याय के तेरहवें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण द्वारा कहा गया है “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:” अर्थात ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभाग पूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। महावीर स्वामी एवं गौतम बुद्ध ने भी कर्मों के आधार पर ही वर्ण व्यवस्था के स्वरूप को मान्यता प्रदान की थी। आजकल ऐसी बात कही जाती है कि वर्ण व्यवस्था उच्च वर्ग के अधिकार संपन्न लोगों की स्वार्थ पूर्ण रचना है, परंतु ध्यान देने पर पता चलता है कि समाज रूपी शरीर की सुव्यवस्था के लिए वर्ण व्यवस्था बहुत ही आवश्यक है।

ऋग्वेद में ऋषि चारों वर्णों की उत्पत्ति के संदर्भ में कहता है कि ब्राह्मण की उत्पत्ति भगवान के श्री मुख से, क्षत्रिय की बाहों से, वैश्य की जांघों से और शूद्र की चरणों से हुई है, जो कि समाज रूपी शरीर की आवश्यक अंग के रूप में हमेशा मौजूद थे। प्राचीन काल में ऊंच-नीच का भाव ना होकर यथायोग्य कर्म विभाग होने के कारण ही चारों वर्णों में एक शक्ति सामंजस्य रहता था। कोई भी किसी की ना अवहेलना कर सकता था, ना किसी के न्याय अधिकार पर आघात कर सकता था। योग्यता एवं कर्म के आधार पर वर्ण निर्धारित होता है और इस बात की पुष्टि प्रसिद्ध मार्क्सवादी लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी पुस्तक ‘भारत-इतिहास और संस्कृति’ में भी की है वह लिखते हैं कि “जाति (वर्ण) कर्मणा होने के अतिरिक्त जन्मना भी थी……. स्त्रियों की स्थिति बहुत उच्च थी।” भारतीय ज्ञान परंपरा सदैव से उस व्यवस्था के खिलाफ रही है जो प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक और आध्यात्मिक उत्कर्ष का अवसर न दे। प्रत्येक मनुष्य को अपना श्रम चुनने का अधिकार होना चाहिए क्योंकि यही पुरुषार्थ है। श्रम का विभाजन किसी एक वर्ण का अधिकार नहीं हो सकता। ऋषि लोमहर्षक शूद्र थे, जिनको उनकी योग्यता और गुणों के कारण व्यास जैसा प्रतिष्ठित पद प्राप्त हुआ था।

“भारतीय चिंतन परंपरा” नामक प्रसिद्ध पुस्तक में के दामोदरन लिखते हैं कि “प्रारंभिक वर्ण केवल विशेषीकरण और श्रम के विभाजन के द्योतक थे, वर्ग विभाजन के नहीं। सामाजिक विकास की काफी बाद की दशा में ही चातुर्वर्ण्य वर्गों में समाज के विभाजन का द्योतक बना।” अर्थात हम जिसे वैदिक काल कहते हैं उस काल में वर्ण व्यवस्था सामाजिक व्यवस्था का एक अनिवार्य और महत्वपूर्ण घटक रही है। आगे इसी पुस्तक में लिखा गया है कि “वर्ण व्यवस्था का उदय समाज की आदिम गण व्यवस्था की उत्तरकालीन अवस्था में हुआ। कालांतर में इसका स्थान वंशागत अधिकार ने ले लिया।” प्राचीन भारतीय समाज यूनान और रोम के समाज की तरह दास और दास-पतियों में विभाजित नहीं था। यह चार वर्गों में विभाजित था, जिन्हें वर्ण कहा जाता था। आज के जमाने में जातिवाद उग्र रूप धारण कर चुका है। प्राचीन काल में उसका रूप धार्मिक एवं सामाजिक था, अब उसने सामाजिक तथा राजनीतिक रूप धारण किया है। के दामोदरन अपनी पुस्तक के माध्यम से कहना चाहते हैं कि वैदिक काल के उपरांत जब समाज में अर्थ की सत्ता प्रतिष्ठित होने लगी और मनुष्य अपने पारंपरिक श्रम को छोड़कर अर्थ केंद्रित व्यवसाय( क्रियाकलापों) की तरफ अग्रसर हुआ तो समाज में एक प्रकार का विचलन आता गया। प्रथम ईसवी में शकों, यवनों के आक्रमण और मध्यकाल में इस्लाम के आगमन के फलस्वरुप हमारी वर्ण व्यवस्था का आंतरिक स्वरूप लगातार परिवर्तित होता चला गया। के दामोदरन लिखते हैं कि “समाज के छोटे से हिस्से के हाथों में धन और संपत्ति के केंद्रीकरण से वर्गों का उदय हुआ और यह वर्ण विभिन्न वर्गों में रूपांतरित हो गए। इन परिस्थितियों में वर्ण व्यवस्था दास प्रथा की सूचक बन गयी।

यही कारण है कि हम सामाजिक टकराव, वर्ग संघर्ष, धनी और निर्धन जनों के बीच तथा शोषक और शोषितों के बीच टकराव का मनुस्मृति, नारद स्मृति और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो उल्लेख पाते हैं किंतु प्राचीनतम वैदिक साहित्य में नहीं। हम देखते हैं कि प्राचीन वैदिक साहित्य में कभी भी वर्ण व्यवस्था वर्तमान जाति व्यवस्था के रुप में मौजूद नहीं रही है। कालांतर में बाहरी विदेशी प्रभाव के फलस्वरुप हमारी आंतरिक सामाजिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन हुए, जिनके फलस्वरूप भारतीय जनमानस में जातीय कटुता, वैमनस्यता लगातार घर करती गई और इसी की अभिव्यक्ति मध्यकाल के तमाम भक्त संतों की वाणी में सुनाई देती है। नामदेव, तुकाराम पेरियार, शंकरदेव, चंडीदास,रामानंद, कबीर, रैदास, गुरु नानक, रज्जब, दादू दयाल तमाम भक्त कवियों ने इसी जाति व्यवस्था में मौजूद विद्रूपताओं और विषमताओं पर करारा प्रहार किया है और समाज को अपने अपने माध्यम से चेतना संपन्न बनाने का कार्य करते रहे हैं। मध्यकाल में कबीर का यह कहना कि ‘जाति पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई’ घोषणा करता है कि भगवान से प्रत्येक मनुष्य के साक्षात्कार के लिए किसी भी विशेष जाति का होना आवश्यक नहीं है। इसी समय मौजूद एक अन्य मध्यकालीन संत चंडीदास कहते हैं कि ‘सुनह मानुष भाई, साबार ऊपरी मानुष सत्य, ताहार ऊपरी नाई’ अर्थात हे मनुष्यों, सुनो! मनुष्य सत्य सर्वोच्च सत्य है, उससे उच्चतर कोई भी सत्य नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अतीत की यात्रा करने के फलस्वरूप हमें अपने मूल में भारतीयता और मानवीयता के ही दर्शन होते हैं। वर्तमान समय में तथाकथित बुद्धिजीवियों से लेकर राजनीतिक पार्टियों ने समाज में मौजूद इस विचलन को बढ़ाने का ही कार्य किया है, जबकि होना यह चाहिए था कि हम अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करने का प्रयास करते और समाज में फैल चुकी जाति की इस विषबेल को हमेशा के लिए खत्म करने का काम करते क्योंकि हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि किसी भी जाति, धर्म, विशेष क्षेत्र या वंश से आने के पहले हम सभी मनुष्य एक भारत माता की संतान हैं और मनुष्यता और भारतीयता हमारी अपनी प्राकृतिक विशेषता है।

विवेकानन्द तिवारी

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