तो अंतत: दिल्ली का महिला आयोग जाग गया! दिल्ली का महिला आयोग इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण है कि कब जागना है और कब नहीं। मतलब का काम होने पर तुरंत जाग जाता है और फिर गहरी निद्रा में चला जाता है। पिछले कुछ दिनों से एक नाम बहुत चर्चा में है सफ़ूरा ज़रगर। सफ़ूरा ज़रगर को दिल्ली पुलिस ने शाहीन बाग़ मामले में गिरफ्तार किया था। वह जामिया यूनिवर्सिटी की छात्रा हैं। छात्रा होना उनका व्यक्तिगत मामला है और इसी के साथ मेडिकल जांच में यह पता चला कि वह दो महीने की गर्भवती हैं तो यह भी उनका व्यक्तिगत ही मामला है। यह शादीशुदा हों भी सकती है और नहीं भी क्योंकि उनका यह बेहद व्यक्तिगत मामला है। मगर उन्हें जिस आरोप में गिरफ्तार किया गया है, वह व्यक्तिगत नहीं है। वह व्यक्तिगत नहीं हो सकता है क्योंकि जो हिंसा सफ़ूरा ज़रगर और अन्य लोगों ने भड़काई, उसने 50 लोगों के घरों के चिराग़ बुझा दिए हैं। और जब आप पर घरों के चिराग़ बुझाने के लिए और परिवारों के सपने नष्ट करने के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ भी निजी नहीं रह जाता है।
दिल्ली पुलिस की मानें तो सफ़ूरा ज़रगर पर कोई छोटा-मोटा आरोप नहीं है। हम सभी वह दिन भूले नहीं है जब पूरी दिल्ली दंगों से दहल गयी थी। जब दिल्ली दंगों की आंच हर घर तक पहुँच गयी थी। 22 फरवरी की रात सीएए और एनआरसी के विरोध में कुछ महिलाएं जाफ़राबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे बैठ गयी थीं। चिंगारी तभी से सुलगने लगी थी। और इस चिंगारी को हवा दे रहे थे सफ़ूरा जैसे लोग। दिल्ली पुलिस के हवाले से यह कहा गया है कि उसी दौरान सफ़ूरा हिंसक भीड़ लेकर वहां पहुँची थी और उसके बाद जो हिंसा हुई, उसे हम सभी ने देखा।
इस बात से किसी को भी ऐतराज नहीं होगा कि गर्भवती होना हर स्त्री का अधिकार है और कोई भी इस पर प्रश्न नहीं उठा सकता है। मगर यह भी एक सच्चाई है कि हम सभी जिस समाज में रहते हैं, उसमें बच्चे के पिता का नाम जानने की जिज्ञासा रहती ही है। नीना गुप्ता जब बिनब्याही माँ बनी तब उन्होंने इस बात को छिपाया नहीं कि उस बच्ची का पिता कौन है। इसी तरह तवलीन सिंह और सलमान तासीर के विषय में भी सब जानते हैं। जब भी आप सार्वजनिक मंच पर आते हैं तो बच्चे के पिता को लेकर एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती ही है। हाँ, यह भी सच है कि इसके आधार पर कि वह विद्यार्थी है और गर्भवती भी, उसके चरित्र पर प्रश्न उठाने का अधिकार किसी को नहीं मिल जाता। और उसके विषय में जो कुछ भी अश्लील चल रहा है, वह सब वह प्रकरण है जिसे नहीं होना चाहिए।
वैसे कई वामपंथी फैक्ट चेकरों ने लोगों को कथित तौर पर जानकारी दी कि सफ़ूरा ज़रगर जेल जाने से पहले से ही शादीशुदा थी और उनका निकाह २०१८ में हुआ था हालांकि पोर्टल में उनके पति का नाम नहीं लिखा है। इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह सफाई सफ़ूरा या उनके कथित पति की तरफ से आनी चाहिए थी, जो कि नहीं आई।
जब भी किसी मामले पर सार्वजनिक हितों के स्थान पर व्यक्तिगत हित महत्वपूर्ण हो जाते हैं तो मामले की गंभीरता बहुत हल्की हो जाती है। सफ़ूरा पर जो आरोप हैं, उसी पर टिके रहना चाहिए। उसके अलावा और कहीं भी नहीं जाना चाहिए। यहाँ पर जो भी लोग सफ़ूरा के चरित्र पर हमला कर रहे हैं, वह सबसे पहले तो यह समझें कि इससे न केवल उनकी छवि पर प्रश्न चिंह लग रहे हैं अपितु सफ़ूरा के साथ भी अनावश्यक संवेदना उत्पन्न हो रही है। यदि उनकी तरफ़ से उसकी गर्भावस्था को निशाना बना कर रिहाई के प्रयास किए जा रहे हैं तो आपके लिए यह तथ्य बताने आवश्यक हो सकते हैं कि कई गर्भवती स्त्रियों को सजा होती है और कई बार कई महिला कैदियों के बच्चे जेल में ही आँखें खोलती हैं। गर्भवती होना अधिकार है, मगर अपराध करना तो उनका अधिकार नहीं है। जब आप अपराध करें तब विद्यार्थी और जब आपको सजा मिले तो आप गर्भवती स्त्री? यह सब नहीं चलेगा? जो आपका उद्देश्य होता है उसकी पूर्ति में कभी भी मातृत्व या गर्भावस्था आड़े नहीं आती। हमारे सामने जीजाबाई और रानी लक्ष्मीबाई के उदाहरण हैं। राजीव गांधी की हत्या के आरोप में जब नलिनी को हिरासत में लिया गया था तो उस समय नलिनी भी दो महीने की गर्भवती थी। ऐसे कई उदाहरण हैं।
अल जज़ीरा ने सफ़ूरा ज़रगर पर जो रिपोर्ट लिखी है, उसे पढ़कर किसी का भी द्रवित हो जाना स्वाभाविक है। परन्तु इस लेख का दूसरा ही पैराग्राफ ऐसा है जो कई प्रश्न उठाता है। यह लिखता है कि “The 27-year old, in the second trimester of her first pregnancy, was arrested on April 10.” गर्भावस्था की दूसरी तिमाही, मतलब 13 सप्ताह से लेकर 28 सप्ताह तक की अवधि को दूसरा ट्राइमेस्टर कहा जाता है। अब यदि इसे मानकर चलें तो यह मान लिया जाए कि जब दिल्ली में वह भड़काऊ भाषण दे रही थी तब वह गर्भवती थी। जब आपका गर्भवती होना भड़काऊ भाषण देने में बाधक नहीं है, अर्थात जब आपकी गर्भावस्था आपके कर्म में बाधक नहीं है तो यह आपनी न्यायिक लड़ाई में भी बाधक नहीं होनी चाहिए।
इन सबमें सबसे रहस्यमयी भूमिका उसके कथित पति की है। अलजजीरा ने अपनी रिपोर्ट में उसके गुमनाम रहने की ख्वाहिश रखने वाले पति के हवाले से लिखा है कि “वह 10 फरवरी को पुलिस के साथ किसी बहस में बेहोश हुई थी और उसके बाद गर्भावस्था के बढ़ने के बाद उसने अपनी शारीरिक गतिविधियाँ कम कर दी थीं। COVID-19 के आने के बाद से तो वह घर से बाहर ही नहीं निकलती थी।”
प्रिंट और वायर सहित कई पोर्टल उसके पति के हवाले से बात कर रहे हैं, मगर यह खुद में बहुत ही रहस्यमय है कि जिसकी पत्नी पर इस हद तक चारित्रिक आरोप लग रहे हैं, वह बाहर आकर यह नहीं कह रहा कि मैं इसका पति हूँ!
स्वाति मालीवाल ट्रोल्स पर तो सख्त हो रही हैं, परन्तु वह भी उस पति से यह कहने का साहस नहीं जुटा पा रही हैं कि आप वेब पोर्टल तक पहुँच सकते हैं तो पुलिस तक भी पहुँच जाइए!
जितने भी लोग उसकी गर्भावस्था की आड़ में लड़ाई लड़ रहे हैं — फिर चाहे वह सबा नकवी हों, अल जज़ीरा हो या फिर ज़ेबा वारसी — वह सभी उसके पति से क्यों नहीं कह रहे हैं कि सामने आइये?
जितना ग़लत है ट्रोल्स का सफ़ूरा पर चारित्रिक हमला करना, उतना ही ग़लत है उसके पति का इस तरह मुंह छिपाकर बैठ जाना! क्या उसका उत्तरदायित्व केवल स्पर्म हस्तांतरण द्वारा उसे गर्भवती करना ही है, और अल जज़ीरा, प्रिंट और वायर आदि जैसे पोर्टल्स से बातचीत करना ही है या सामने आकर उसकी जिम्मेदारी लेना? यहाँ यह भी समझना ज़रूरी है कि किसी के भी अपराध उसके गर्भवती या माँ होने के कारण कम नहीं हो जाते, बात उसके अपराधों पर होनी चाहिए, वह लोग चाहे जितना भी उसकी गर्भावस्था के आधार पर मामले को मोड़ें, पुलिस को और क़ानून को केवल और केवल उसके आरोपों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित रखना चाहिए।