HomeExpositionsHistoryज्ञानवापी ब्रिटिश प्रशासन, विदेशी विशेषज्ञों की नज़र में

ज्ञानवापी ब्रिटिश प्रशासन, विदेशी विशेषज्ञों की नज़र में

ज्ञानवापी के कारण हुए उत्तर भारत के पहले सांप्रदायिक दंगे, बिशप रेजिनल्ड हेबर के साक्ष्य, हिन्दू-विरोधी शौक़िया पुरातत्त्वविद एमए शेरिंग के तर्क व इतिहासकार एडविन ग्रीव्स के लेखन पर लघु लेख

स्वधर्म पर औरंगज़ेब द्वारा विश्वेश्वर मंदिर के खंडन पर लेख छप चुके हैं। यह लेख उस कालखंड के बारे में है जिस पर मीडिया में कम चर्चा हुई है जबकि क़ानूनी मामले में यह काल अत्यंत प्रासंगिक है क्योंकि ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थापित क़ानूनी तथा प्रशासनिक व्यवस्था स्वतंत्र भारत में भी सात दशकों से अधिक अंतराल तक बनी रही और उसी तंत्र के आधार पर कई मंदिर-मस्जिद विवादों को निपटाने की कोशिश की गई। ब्रिटिश काल में कभी सनकी मुग़ल राजनीति का विषय रहे ज्ञानवापी स्थानीय हिंदुओं और मुसलमानों के बीच बारहमासी विवाद के स्थल में बदल गया था जिससे कई क़ानूनी मुक़द्दमे और यहाँ तक ​​कि दंगे भी हुए। कुलीनों और धनी व्यापारियों की एक नई पीढ़ी ने शहर के धार्मिक जीवन को नियंत्रित करने में अक्सर शहरीकरण की आड़ में मुगल काल के उत्तरार्ध में छोटे शासकों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका को अपने हाथ में ले लिया था।

Banaras Reconstructed—Architecture and Sacred Space in a Hindu Holy City पुस्तक में इतिहासकार माधुरी देसाई लिखती हैं कि मस्जिद के निर्माण ने वाराणसी नगर के धार्मिक क्षेत्र पर मुग़ल नियंत्रण के बारे में “स्पष्ट रूप से राजनैतिक और दृष्टांत स्थापित करने वाले” दावे को प्रसारित करने की कोशिश की थी, लेकिन मुग़लों की इस राजनीति ने बजाय इसके विश्वेश्वर के स्थल को “शहर के अनुष्ठान परिदृश्य के निर्विवाद केंद्र में बदल दिया” था।

व्यापक रूप से कंपनी शासन के दौरान उत्तर भारत में पहला दंगा 1809 में हुआ जिससे बनारस में प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता में तेज़ी आ गई। ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर के बीच तटस्थ स्थान पर हिंदू समुदाय द्वारा एक मंदिर बनाने के प्रयास से तनाव बढ़ गया।

जल्द ही होली और मुहर्रम का त्यौहार एक ही दिन पड़ गया और दोनों तरफ़ के जुलूस आयोजकों के टकराव ने दंगे को भड़का दिया। मुसलमानों के एक समूह ने ज्ञानवापी कुएँ के पवित्र जल को दूषित करने के लिए हिंदुओं द्वारा पूजी जाने वाली गाय की हत्या की। जवाब में एक हिंदू भीड़ ने ज्ञानवापी मस्जिद में आगज़नी करने और फिर उसे ध्वस्त करने का प्रयास किया। ब्रिटिश प्रशासन द्वारा दंगा शांत करने से पहले कई मौतें हुईं और लाखों की संपत्ति का नुक़सान हुआ।

ज्ञानवापी रेजिनल्ड हेबर की दृष्टि से

अपने सितंबर 1824 के दौरे में बिशप रेजिनल्ड हेबर ने पाया कि हिंदुओं के लिए ज्ञानवापी परिसर का चबूतरा अहिल्याबाई के मंदिर से भी अधिक पूजनीय है और पुजारियों और भक्तों से भरा हुआ है। गंगा के भूमिगत चैनल द्वारा पोषित कुएँ में श्रद्धालुओं के उतरने और स्नान करने के लिए एक सीढ़ी का उल्लेख बिशप ने किया।

चार साल बाद मराठा शासक दौलतराव सिंधिया की विधवा बैजाबाई ने पेशवा वंश के एक व्यक्ति द्वारा उठाए गए प्रस्ताव के अनुसार कुएँ के चारों ओर एक मंडप का निर्माण किया, इसका आकार छोटा कर दिया और एक छत के सहारे के लिए एक स्तंभ खड़ा किया।

स्तंभ काशीखंड में उल्लिखित ज्ञान मंडप पर आधारित था, लेकिन स्थापत्य शैली समकालीन मुग़ल बारादरी से उधार ली गई थी। इसके पूर्व में नंदी की एक मूर्ति थी जिसे नेपाल के राणा ने उपहार में दिया था। सुदूर पूर्व में महादेव का एक मंदिर हैदराबाद की रानी द्वारा बनवाया गया था। दक्षिण में दो छोटे मंदिर मौजूद थे — एक संगमरमर का और दूसरा पत्थर का।

ब्रिटिश राज में ही पहला क़ानूनी विवाद 1854 में उत्पन्न हुआ जब स्थानीय न्यायालय ने परिसर में एक नई मूर्ति स्थापित करने की याचिका ख़ारिज कर दी। उसी वर्ष एक बंगाली तीर्थयात्री ने कहा कि परिसर तक पहुँचने के लिए मुसलमान प्रहरियों को “या तो रिश्वत दी जाती थी या उनकी आँखों में धूल झोंकी जाती थी”।

ज्ञानवापी के बारे में एमए शेरिंग की मान्यता

फिर शौक़िया पुरातत्त्वविद एमए शेरिंग ने 1868 में The Sacred City of the Hindus में लिखते हुए कहा कि हिंदुओं ने चबूतरे के साथ-साथ दक्षिणी दीवार पर भी दावा किया है। पुरातत्त्वविद के अनुसार मुसलमानों को मस्जिद पर नियंत्रण स्थापित करने की अनुमति दी गई, लेकिन बहुत अनिच्छा से और केवल पार्श्व प्रवेश द्वार का उपयोग करने की अनुमति दी गई। शेरिंग कोई हिंदुओं के हितैषी नहीं थे। आजकल के वामपंथियों की तरह उन्होंने यह भ्रांति फैलाई थी कि यदि मुसलमानों ने कई मंदिर तोड़े और वहाँ मस्जिदें बनवाईं तो ऐसा ही कृत्य कभी हिंदुओं ने बौद्धों के साथ बौद्ध मठों को विस्थापित कर मंदिर बनवा कर किए थे।

शेरिंग के अनुसार प्रवेश द्वार के ऊपर लगे एक पीपल के पेड़ की भी पूजा की जाती थी और मुसलमानों को “इसमें से एक पत्ता तोड़ने” की भी अनुमति नहीं थी।

फिर 1886 में अवैध निर्माणों के विवाद पर फैसला सुनाते हुए ज़िला मजिस्ट्रेट ने माना कि मस्जिद के विपरीत घेरा एक सामान्य स्थान था जिससे किसी भी एकतरफ़ा और नए प्रयोग को रोका जा सकता था। ज़िलाधीश की इस मान्यता ने अगले कुछ दशकों में कई मामलों के निर्णय में अपनी भूमिका निभाई।

एडविन ग्रीव्स की पुस्तक

आगे 1909 में Kashi, the City Illustrious उर्फ़ Benaras के लेखक इतिहासकार एडविन ग्रीव्स ने इस स्थल का दौरा करते हुए पाया कि मस्जिद का “बहुत अधिक उपयोग नहीं किया गया” था और यह हिंदुओं के लिए “आंखों की किरकिरी” बनी हुई थी। मंडप के बारे में उनका वर्णन शेरिंग के वर्णन के समान था। ग्रीव्स के अनुसार ज्ञानवापी का कुआँ भी भक्तों के लिए महत्वपूर्ण केंद्र था। “ज्ञानवापी” शब्द में “वापी” का अर्थ “कुआँ” ही होता है।

ग्रीव्स ने लिखा कि बगल में एक शीला पर बैठा पुजारी तीर्थयात्रियों को पवित्र जल दिया करता था। उन दिनों उस कुएँ में कूद कर जान देने की कुछ घटनाएँ हुईं। इसके बाद आत्महत्याओं को रोकने के लिए कुएँ को लोहे की रेलिंग से ढक दिया गया। भक्तों को पानी तक सीधे पहुँचने की अनुमति वापस ले ली गई। इस बीच क़ानूनी विवाद जस का तस जारी रहा।

ब्रिटिश प्रशासन का दृष्टिकोण

फिर 1929 और 1930 में ब्रिटिश प्रशासन ने मौलवियों को आगाह किया कि वे मुसलमानों को जुमुआतुल-विदा के अवसर बाड़े में घुसने न दें, ऐसा न हो कि हिंदू तीर्थयात्रियों को असुविधा का सामना करना पड़े।

इसके बाद जनवरी 1935 में मस्जिद समिति ने ज़िला मजिस्ट्रेट के समक्ष असफल मांग की कि भीड़-भाड़ पर प्रतिबंध हटा दिया जाए। उसी साल अक्टूबर में फिर मांग की गई कि मुसलमानों को परिसर में कहीं भी प्रार्थना करने की अनुमति दी जाए, लेकिन मुसलमानों को अब भी इसकी इजाज़त नहीं मिली।

दिसंबर 1935 में मस्जिद के बाहर नमाज़ पढ़ने से रोके जाने पर स्थानीय मुसलमानों ने पुलिस पर हमला कर दिया। घटना में कई अधिकारी घायल हो गए। इसके बाद मुसलमानों ने अपना क़ानूनी हथकंडा ज़ोरों से आज़माया। उन्होंने आग्रह किया कि पूरे परिसर को मस्जिद का एक अभिन्न अंग माना जाए अर्थात् एक वक्फ संपत्ति! इसमें मुसलमानों के शरि’आ के अंतर्गत अधिकार सुरक्षित रहे, किसी सेक्युलर क़ानून द्वारा प्रदत्त अधिकार नहीं। पर अगस्त 1937 में निचली अदालत ने इस विवाद को ख़ारिज कर दिया और 1941 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने न केवल मुसलमानों की इस अपील को निरस्त किया बल्कि वादी पक्ष पर ग़लत अर्ज़ी द्वारा अदालत का क़ीमती समय बर्बाद करने के जुर्म में जुर्माना भी लगाया।

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Surajit Dasguptahttps://swadharma.in
Surajit Dasgupta began his career as a banker with Citibank and then switched to journalism. He has worked with The Statesman, The Pioneer, Swarajya, Hindusthan Samachar, MyNation, etc and established his own media houses Sirf News and Swadharma. His professional career began in 1993. He is a mathematician by training and has acute interest in science and technology, linguistics and history. He is also a Sangeet Visharad.

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