बरसों से इतिहासकारों की यह आम राय (नीचे screenshot देखें) रही है कि काशी विश्वनाथ मंदिर को कई मुसलमान आक्रांताओं ने ध्वस्त किया और जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जाता है, वह उसी मंदिर के तोड़े गए हिस्से पर बनाया गया, परंतु जब यह विवाद न्यायपालिका में पहुँचा तो इसे पुरातत्त्व द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता आन पड़ी। न केवल भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India या ASI) के अनुसंधान ने इतिहासकारों की बात को सत्यार्पित कर दिया है बल्कि दो समसामयिक प्राध्यापकों के शोधकार्य से भी यही प्रमाणित होता है।
ASI ने वाराणसी अदालत के निर्देश के अनुपालन में इस सप्ताह की शुरुआत में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर पर अपनी व्यापक वैज्ञानिक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की। हिंदू पक्ष का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील विष्णु शंकर जैन के अनुसार हिंदू और मुसलमान दोनों पक्षों के लिए उपलब्ध ASI रिपोर्ट एक बड़े हिंदू मंदिर की उपस्थिति का संकेत देती है जो वर्तमान संरचना से भी पहले का है। जबकि रिपोर्ट अदालत में चर्चा की प्रतीक्षा कर रही है, हाल के ही एक अध्ययन से पुनः पता चला है कि काशी विश्वनाथ मंदिर 1194 और 1777 ई० के बीच विध्वंस और पुनर्निर्माण की कई घटनाओं का साक्षी रहा है।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) में सांस्कृतिक परिदृश्य और विरासत अध्ययन के पूर्व प्रोफेसर राणा पीबी सिंह ने संस्थान के प्रवीण एस राणा के साथ “The Kashi Vishwanath, Varanasi City, India: Construction, Destruction and Resurrection To Heritisation” शीर्षक से एक शोध पत्र प्रस्तुत किया जिसमें वाराणसी के संरक्षक देवता विश्वनाथ का ऐतिहासिक विवरण प्रदान किया गया है।
प्रो० सिंह स्वीकार करते हैं कि ऐतिहासिक रिकॉर्ड 1194 ई० में क़ुत्ब उद्दीन द्वारा किए गए विनाश की पहली घटना की पुष्टि करते हैं जिसमें वर्तमान रज़िया सुल्तान मस्जिद स्थल पर स्थित विश्वेश्वर मंदिर का विध्वंस भी शामिल था। रज़िया सुल्तान (1236-1240 ई०) के शासनकाल के समय विश्वेश्वर मंदिर के रिक्त स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया था। इसके बाद 13वीं शताब्दी के अंत में अविमुक्तेश्वर परिसर में एक मंदिर बनाया गया जो जौनपुर के शर्की राजाओं (1436-1458 ई०) के अंतर्गत अगले विनाश तक क़ायम रहा।
विश्वेश्वर या काशी विश्वनाथ मंदिर के प्रारंभिक निर्माण और मूल स्थल के आसपास की ऐतिहासिक जाँच पर बोलते हुए सिंह ने प्रमाणित किया कि विचाराधीन अवधि को दिल्ली सल्तनत की स्थापना द्वारा चिह्नित किया गया था जिससे संपूर्ण गंगा का मैदान मुसलमान प्रभाव में आ गया था। नगर के धार्मिक जीवन को लगातार ख़तरों का सामना करना पड़ा जिसके परिणामस्वरूप काशी के मंदिरों का बार-बार विनाश हुआ।
प्रो० सिंह ने एक विस्तृत वास्तुशिल्प योजना के साथ विश्वेश्वर मंदिर अर्थात् काशी विश्वनाथ मंदिर को मोक्ष लक्ष्मी विलासा मंदिर के रूप में पहचानने वाले पौराणिक विवरण के बारे में भी बात की। उनके अनुसार 1490 ई० में सिकंदर लोदी ने बनारस में प्रमुख मंदिरों को नष्ट कर दिया जिससे अविमुक्तेश्वर का महत्व कम हो गया।
प्रो० सिंह के अनुसार टोडरमल के नाम से जाने जाने वाले बनारस के रघुनाथ पंडित के संरक्षण में 1585 ई० में एक नए विश्वेश्वर मंदिर का निर्माण किया गया था जिसे 1669 ई० में मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब के आदेश के अंतर्गत एक और विध्वंस का सामना करना पड़ा जिससे यह एक मस्जिद में परिवर्तित हो गया। वर्तमान मंदिर पुराने विश्वनाथ मंदिरों के खंडहरों पर खड़ा है जिसका निर्माण 1777 ई० में रानी अहिल्याबाई होल्कर (1725-1795 ई०) के संरक्षण में किया गया था। फिर 1835 में महाराजा रणजीत सिंह ने इसके गुंबद को चढ़ाने के लिए 1,000 किलोग्राम सोने का योगदान दिया था।
प्रो० सिंह ने इस बात पर प्रकाश डाला कि वर्तमान मस्जिद स्थल पर पुराने काशी विश्वनाथ मंदिर के दक्षिण में 100 मीटर से भी कम दूरी पर चुनार बलुआ पत्थर से बना 1585 ई० के आसपास पुनर्निर्मित राजा टोडरमल के मंदिर के अवशेष देखे जा सकते हैं। मक्का में काबा के पवित्र मंदिर की दिशा का प्रतिनिधित्व करने वाली किबला दीवार मंदिर के दृश्य अवशेषों के ऊपर स्थित है जिसे पूरी तरह से ध्वस्त नहीं किया गया था।
‘अविमुक्तेश्वर सील’ के नाम से जानी जाने वाली पुरातात्त्विक कलाकृति राजघाट पर पाई गई जो 6ठी से 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व की है जो शिव के एक रूप का प्रतीक है।
मुसलमानों द्वारा भारत की हिन्दू संस्कृति पर आक्रमण के आरंभ होने से शताब्दियों पहले चीनी तीर्थयात्री ह्वेनसांग (602-664 ई०) ने वाराणसी का दौरा किया था और इस मंदिर को उस समय का सबसे सक्रिय और लोकप्रिय धर्मस्थान बताया था जिसे महाभारत (अरण्य पर्व, 84.78) में देवादिदेव के रूप में संदर्भित किया गया है। समय के साथ मंदिर का नाम विश्वेश्वर से विश्वनाथ हो गया। फिर 4थी से 9वीं शताब्दी ईस्वी के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार प्रमुख मंदिर और संरक्षक देवता शिव का रूप था जिसे अविमुक्तेश्वर कहा जाता था और केवल 12वीं शताब्दी तक ही विश्वेश्वर ने पहले के देवता का स्थान लेते हुए प्रमुखता प्राप्त की थी।
प्रो० राणा पीबी सिंह एवं प्रो० प्रवीण एस राणा से पूर्व ये इतिहासकर इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे —
माधुरी देसाई, हीरयून शिन, कैथरीन अशर, रोज़लिंड ओ’हैनलन, माइकल डंपर, मैरी सर्ल चैटर्जी, एसपी उदयकुमार, हैन्स बैकर इत्यादि।
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