कथित रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों अयोध्या के मंदिर में राम लल्ला की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा को लेकर हिन्दू समाज का एक अंश हंगामा कर रहा है। स्वधर्म में अब तक यह स्पष्ट किया जा चुका है कि प्राण प्रतिष्ठा प्रधानमंत्री नहीं कर रहे हैं, परंतु एक और विवाद 22 जनवरी के अनुष्ठान को लेकर यह खड़ा हुआ है कि अपूर्ण मंदिर के भीतर प्राण प्रतिष्ठा नहीं किया जा सकता। क्या यह दावा शास्त्रों के आधार पर सत्यार्पित है? विपक्ष की कुछ पार्टियों के निकट रहे स्वर्गीय शंकरचार्य स्वरूपानन्द सरस्वती के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द का कहना है कि 22 जनवरी को होने वाली राम लल्ला की मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा शास्त्र-सम्मत नहीं है।
अविमुक्तेश्वरानन्द ने न केवल समाचार एजेंसी पीटीआई को यह मौखिक बताया है अपितु उनकी पीठ की तरफ़ से कुछ पुराणों को उद्धृत कर अनुष्ठान की आलोचना लिखित रूप में भी की गई है।
और अधिक वृत्तांत के साथ अविमुक्तेश्वरानन्द अपनी बात करण थापड़ के साथ साक्षात्कार में रखते हैं। यह बात और है कि द वायर जैसे मीडिया उपक्रम इस ताक में रहते हैं कि मोदी विरोध, भाजपा विरोध या RSS विरोध कहाँ हो रहा है और तुरंत विरोध को और तूल देने उनके पत्रकार वहाँ पहुँच जाते हैं। यहाँ केवल अविमुक्तेश्वरानन्द की बात में यथार्थ कितना है, यह समझने की चेष्टा करनी चाहिए —
क्या अविमुक्तेश्वरानन्द शास्त्रों का सही अर्थ बता रहे हैं?
परंतु स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द द्वारा उद्धृत अग्नि (या आग्नेय) पुराण, विश्वामित्र संहिता, क्षीरार्णव, विष्णु संहिता, नारद संहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण और मध्यकालीन प्रतिष्ठामयुख का उन्होंने हिन्दी में जो अर्थ निकाला है, वह सटीक नहीं है। उनकी यह बात सच है कि एक बार मंदिर के बन जाने पर मंदिर को वहाँ के इष्टदेव का स्थूलरूपी शरीर माना जाता है। किन्तु उनके द्वारा उद्धृत श्लोकों में कहीं नहीं लिखा है कि देवता की सूक्ष्मरूपी (या आत्मा का द्योतक) मूर्ति से पहले स्थूलरूपी मंदिर का निर्माण सम्पूर्ण हो जाना चाहिए।
प्रासादो वासुदेवस्य मूर्तिरूपो निबोध मे॥
अग्नि पुराण 61.19,26
निश्श्चलत्वं च गर्मोऽस्या अधिष्ठाता तु केशवः।
एवमेष हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः॥
स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द द्वारा उद्धृत उपरिलिखित श्लोकों का सरलार्थ है — “मूर्तिरूपी वासुदेव के प्रासाद (मंदिर) के विषय में मुझसे सुनो। वह भले ही गतिहीन व जीवनमुक्त हो, उसमें केशव अधिष्ठान करते हैं। इसी प्रकार प्रासाद में हरि साक्षात वास करते हैं।”
आगे PDF में लिखा है
प्रासादं देवदेवस्य प्रोच्यते तात्त्विकी तनुः।
विश्वामित्र संहिता 14.84
तत्त्वानि विन्यसेत्पीठे यथा तत्त्वाधिवासकः॥
इसका अर्थ है — “देवताओं का प्रासाद उनका तात्त्विक शरीर माना जाता है। व्यक्ति को तत्वों में निवास करने वाले व्यक्ति की भांति तत्वों को आसन पर व्यवस्थित करना चाहिए।” यह गर्भगृह में स्थित आसन की ओर संकेत भी हो सकता है; आवश्यक नहीं कि यह सम्पूर्ण मंदिर की बात हो।
स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द आगे उद्धृत करते हैं
प्रासादो देवरूपः स्यात्
विश्वकर्म विरचित क्षीरार्णव
अर्थात् “मंदिर मानो देव का ही रूप है”। इससे भी यह स्पष्ट नहीं कि प्राण प्रतिष्ठा से पूर्व मंदिर का निर्माण पूर्ण हो जाना चाहिए।
फिर
प्रासादस्थापनं वक्ष्ये तच्चैतन्यं स्वयोगतः।
अग्नि महापुराण 101.1-13
शुकनाशासमाप्तौ तु पूर्ववेद्याश्च मध्यतः॥ … विधायैवं प्रकृत्यन्ते कुम्भे तं विनिवेशयेत्॥
यहाँ महादेव कार्तिक से कहते हैं, “मैं मंदिर का वक्षस्थल (छाती) में स्थापना कर उसमें चेतना युक्त करने की विधि बताऊंगा। …” किन्हीं कारणों से पूरा संदर्भ स्पष्ट नहीं किया गया है, पहले श्लोक के पश्चात सीधे 13वें श्लोक के अंतिम चरण को उद्धृत किया गया है और उद्धृत अंशों का स्वामी ने जो अनुवाद किया है, वह सटीक नहीं है।
खंड में श्लोक 1 से 13 तक शिव द्वारा मंदिर बनाने की प्रक्रिया समझाई गई है। यथा —
पहले से पांचवे श्लोक तक — मैं एक मंदिर को प्रतिष्ठित करने की विधि का वर्णन करूंगा [अर्थात, प्रसाद-स्थापना]। उसके द्वारा ही वह दैवी शक्ति से व्याप्त हो जायेगा। कोणीय प्रक्षेपण पूरा होने के उपरांत उपदेशक को पूर्वी वेदी के मध्य में सोने या अन्य धातुओं से बना एक घड़ा स्थापित करना चाहिए। इसे पंचगव्य, मधु और दूध से भरना चाहिए। (घड़े के नीचे) पाँच प्रकार के रत्न रखने चाहिए। (घड़े को) माला और वस्त्र से सजाना चाहिए। इसे सुगंध से सराबोर किया जाना चाहिए. इसे सुगंधित फूलों से सजाना चाहिए। मंदिर को आम आदि पेड़ों की कोमल पत्तियों से सजाया जाना चाहिए। अपने शरीर में अनुष्ठान पूरा करने के बाद, गुरु को सांस खींचकर (अपनी आत्मा की ऊर्जा) इकट्ठा करनी चाहिए। फिर गुरु को (भगवान) शंभु को बताना चाहिए (जब आत्मा को अपने मंत्र के साथ सभी (अन्य) आत्माओं से अलग माना गया, तो शिव ने उसकी आज्ञा से सांस छोड़ी।
छठा श्लोक — अग्नि स्फुलिंग की भांति चमकने वाली बारह पंखुड़ियों से समान तेज इकट्ठा करने के पश्चात मंत्रों में बताए अनुसार सुंदर अवस्था में उसे घड़े में स्थित किया जाना चाहिए।
7. छवि, उसके गुण, सुन्दर अवस्थाएँ, क्ष तक के अक्षर और उनके स्वामी तथा मौलिक सिद्धांतों का संग्रह अवस्थित होना चाहिए।
- दस नाड़ियाँ (शरीर के नलिकाकार अंग), दस प्राण वायु और तेरह ज्ञानेन्द्रियाँ तथा उनके इष्टदेवों को उनके नामों के साथ ॐ अक्षर को मिलाने के बाद (स्थित किया जाना चाहिए)।
- (दो मूलभूत सिद्धांत) भ्रम और सार्वभौमिक स्थान जो एक दूसरे के प्रति कारण और प्रभाव के संबंध में खड़े हैं, सीखने के देवता जो व्यापक (भगवान) शंभु (शिव) को निर्देशित करते हैं (उन्हें भी वहां स्थित होना चाहिए) (मंत्रों का पाठ)।
10-12. उपसाधनों का पता लगाने के बाद गुरु को रोधमुद्रा (संयम को दर्शाने वाली अंगुलियों से बनी मुद्रा) दिखाकर (देवता को) दूर जाने से रोकना चाहिए। अन्यथा सोने या अन्य धातुओं की भगवान की मूर्ति बनानी चाहिए और उसे गाय आदि से प्राप्त पांच वस्तुओं से पहले की तरह शुद्ध करना चाहिए। घड़े को बिस्तर पर रखकर (भगवान) रुद्र का ध्यान करना चाहिए। उमा के पति, (भगवान) को उस (छवि) में व्यापक (भगवान) के रूप में स्थित होना चाहिए। वहां (भगवान् के) निवास को स्थायी रूप से पूरा करने के लिए तर्पण, छिड़काव, स्पर्श और (मंत्रों का) जप (करना चाहिए) करना चाहिए।
- इस प्रकार अपने तीन प्रभागों में मंगलाचरण की घोषणा पूरी करने के बाद, उपदेशक को छवि को घड़े में रखना चाहिए।
फिर शंकराचार्य अग्नि पुराण के 61वें अध्याय के 19वें से 27वें तक के श्लोक उद्धृत करते हैं। पाठकगण श्लोकों व उनके शंकराचार्य द्वारा अनुवाद पीडीएफ़ से ही देख लें। उचित अनुवाद निम्नलिखित है —
- ध्वज को प्रकृति और डंडे को पुरुष के रूप में जाना जाना चाहिए और आप जानते हैं कि मंदिर वासुदेव (विष्णु) की छवि का दूसरा रूप है।
- (एक मंदिर में) धरणी (पृथ्वी) को उसकी धारण करने की क्षमता के कारण कहा जाता है, इसकी आंतरिक गुहा आकाश का प्रतिनिधित्व करती है, अंदर की रोशनी अग्नि का प्रतिनिधित्व करती है, और इसका स्पर्श हवा का प्रतिनिधित्व करता है।
- (मंदिर के) पत्थर की पट्टियों में पाया जाने वाला सांसारिक जल सांसारिक गुणों का प्रतिनिधित्व करता है। इसकी प्रतिध्वनि ध्वनि के सिद्धांतों का प्रतीक है। इसका स्पर्श खुरदरापन दर्शाता है।
- इसका रंग जो सफेद या अन्यथा हो सकता है, रंग के सूक्ष्म सिद्धांत का प्रतीक है। (देवता को) चढ़ाया जाने वाला भोजन (और अन्य खाद्य पदार्थ) स्वाद की अनुभूति का प्रतीक है। इत्र गंध की भावना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वाणी का भाव नीचे (मंदिर में प्रयुक्त) में निहित है।
- मुख्य शिला (मंदिर की) नाक है। दो छिद्र (दोनों तरफ) दो हाथों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऊपर की मेहराबदार छत को इसके सिर के रूप में लिया जाना चाहिए और घड़े को इसके सिर पर।
- इसकी गर्दन को गर्दन के नाम से जानना चाहिए। दोष के ऊपर के मंच को कंधे के रूप में बोला जाता है। पानी के आउटलेट गुदा और जननांग हैं। चूना-प्लास्टर को त्वचा कहा जाता है।
- द्वार मुख होगा। कहा जाता है कि (मंदिर में स्थापित) प्रतिमा ही इसका प्राण है। आसन को अपनी ऊर्जा के रूप में जानना चाहिए। इसके आकार को इसके एनीमेशन के रूप में भी जाना जाना चाहिए।
- इसकी गुहा ही इसका जड़त्व है. भगवान केशव इसके नियंत्रक हैं। इस प्रकार भगवान श्री हरि स्वयं मंदिर के रूप में रहते हैं।
- भगवान शिव को शंख के नाम से जानना चाहिए। कंधे में भगवान ब्रह्म का वास है। भगवान विष्णु मंदिर के ऊपरी भाग में वैसे ही रहते हैं।
स्पष्ट है कि अब तक मंदिर कैसे बनना चाहिए, इसिका विवरण चल रहा है। मंदिर निर्माण पूर्ण होने से पहले मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिए, यह अग्नि पुराण में नहीं लिखा है।
फिर अविमुक्तेश्वरानन्द विष्णुसंहिता के 16वें अध्याय में पहुँच जाते हैं, जिसके वे 63वें श्लोक से 70वें श्लोक को उद्धृत करने का दावा करते हैं हालांकि विष्णुसंहिता में स्वामी द्वारा बताए श्लोकों का क्रम कुछ और ही है। उनका उद्धरण और उनके द्वारा अनुवाद पीडीएफ़ से पढ़िये। फ़ाइल से शब्दशः चुराकर सोशल मीडिया पर धड़ल्ले से, बिना विवेचना और संस्कृत की समझ के तथा बिना सटीक क्रम संख्या बताए चिपकाया गया है। “मध्ये ब्रह्मा शिवोऽन्ते स्यात् कलशे तु स्वयं हरिः…” से लेकर “प्रासादपादमात्रोच्चः प्राकारः परितो भवेत्” (जो विष्णुसंहिता के 13वें अध्याय से 59वें श्लोक से 70वें श्लोक हैं) का सटीक अनुवाद है —
“मध्य में ब्रह्मा और अंत में शिव और कलश में स्वयं हरि हैं॥13.59॥
कलश के अंत में महाविष्णु और उसके सामने सदाविष्णु हैं।
घर और गर्भ की पूजा को स्थूल और सूक्ष्म और पारलौकिक जानना चाहिए ॥13.60॥
अनंत चंदन, आत्म-तत्व के स्वामी, भगवान को जानना चाहिए।
ज्ञान का सार ऊपर और परे, अथाह का निवास है॥13.61॥
इंद्र और अन्य लोग वेदी की दिशा में हैं और विश्वक्सेन प्रणाली में हैं।
कमर जूते से लेकर पैरों और जांघों तक बैंड के अंत की ओर है॥13.62॥
मेखला, करधनी, पेट, गर्भ, खम्भे और भुजाएँ।
मध्य नाभि हृदय है, आसन पीने का स्थान और पानी का निकास है॥13.63॥
पैरों का आधार अहंकार है और गांठ को बुद्धि कहा जाता है।
उस प्रकृति के अंत में कमल है और छवि पुरुष है॥13.64॥
घंटी जीभ है, मन दीपक है, लकड़ी मांसपेशी है, पत्थर हड्डी है।
त्वचा अमृत है, मलहम मांस है, रक्त वह स्वाद है जो वहां मौजूद है॥13.65॥
नजर शिखर की तरफ होनी चाहिए और झंडे का सिरा शिखा पर होना चाहिए
नीचे का बर्तन हाथ होना चाहिए और दरवाज़ा प्रजनन होना चाहिए॥13.66॥
तोते की नाक को गाय की आँख और कान के नाम से जाना जाता है।
कबूतर की हथेली और कंधे और गर्दन एक शुद्ध दुपट्टे से ढके हुए हैं॥13.67॥
घड़ा सिर है, मक्खन मज्जा है, वाणी मंत्र है, सिंचाई दूध है।
वस्तुएं नाम, शांति और अन्य के रंगों के भोजन और धूप में स्थित हैं॥13.68॥
छिद्र में, वातायन में, आवास में, मरहम में और भोजन की स्थिरता में।
दूसरी ओर के जोड़ों को लोहे के बंधन और कीलों के समान समझना चाहिए॥13.69॥
उनके केश और बालों को दूध के कोकून के रूप में जाना जाना चाहिए।
दीवार के चारों ओर केवल एक फुट ऊंची दीवार होनी चाहिए॥13.70॥”
अब भी ऐसी कोई संसक्ति (शर्त) सामने नहीं आई कि बिना मंदिर पूरा बनाए मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। आगे के उद्धरणों का संपूर्ण अनुवाद मैं नहीं कर रहा हूं ताकि लेख बोझिल न हो जाए, पर इनके विशेषज्ञों द्वारा अनुवाद कुछ विश्वसनीय व शैक्षणिक पोर्टल्स पर उपलब्ध हैं।
आगे अविमुक्तेश्वरानन्द नारदसंहिता के 15वें अध्याय से 173-181 क्रम के श्लोकों को उद्धृत करने की चेष्टा करते हैं परंतु कई शब्दों की वर्तनी में त्रुटियाँ दिखती हैं। जैसे “तल्लापि तत्त्वविन्यासं वक्ष्मामि श्रृणु तत्त्वतः” को “तत्रापि तत्त्वविन्यासं वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः” लिखा गया है। मूल श्लोक यहाँ पढ़ें। इन श्लोकों का अनुवाद इस तरह आरंभ होता है कि “अब मैं आपको तत्वों की व्यवस्था समझाऊंगा; कृपया उन्हें विस्तार से सुनें।” फिर 181 क्रमांक के श्लोक तक मंदिर की शिल्पकला के अंग देवता की इंद्रियों के द्योतक बताए गए हैं। यहाँ भी प्राण प्रतिष्ठा की कोई शर्त नहीं बताई गई है।
फिर विष्णुधर्मोत्तरपुराण के 14वें अध्याय के 44वें श्लोक की उद्धृति है जिसका अर्थ है “तो हे धरती के स्वामी, ध्वज की व्यवस्था की जानी चाहिए”। यहाँ स्वामी जी का अनुवाद ठीक है।
स्वामी जी वापस अग्निमहापुराण का हवाला देते हैं। 61वें अध्याय के 16वें और 28वें श्लोकों का उल्लेख है। सोलहवां श्लोक कहता है “या चारों दिशाओं में गरुड़ (भगवान विष्णु का वाहन) की चार प्रतिमाएं रखनी चाहिए। अब मैं दुष्टात्माओं का नाश करने वाली ध्वजदंडिका का वर्णन करूँगा।” 28वें श्लोक का भावार्थ है “मेरी बात सुनो, मैं ध्वजा के द्वारा मन्दिर की प्रतिष्ठा का वर्णन करूँगा। दिव्य अस्त्र-शस्त्रों के चिह्नों से युक्त पताकाएँ स्थापित कर दिव्य देवताओं ने राक्षसों को परास्त किया।”
अब विश्वकर्म विरचित क्षीरार्णव की बारी है। यहाँ भी मंदिर को देवता का रूपक बताया गया है और प्राण प्रतिष्ठा की कोई शर्त नहीं बतलाई गई।
अंत में नीलकंठ भट्ट रचित प्रतिष्ठामयूख है। यहाँ अविमुक्तेश्वरानन्द द्वारा किया गया अनुवाद सही है पर यहाँ भी शर्त वाली कोई बात नहीं है।
अविमुक्तेश्वरानन्द से भिन्न मत
मंदिर निर्माण पर विप्र वर्ग की मत भिन्नता भी है। सभी अविमुक्तेश्वरानन्द से सहमत नहीं हैं। मिथिलेश नंदिनी शरण का मानना है कि मंदिर निर्माण पूर्ण होने के पश्चात प्राण प्रतिष्ठा और मंदिर के शिखर की स्थापना से पूर्व प्राण प्रतिष्ठा — ये दोनों विधियाँ शास्त्रसम्मत हैं।
गायत्री परिवार का कहना है कि प्राण प्रतिष्ठा के लिए ये विधियाँ पर्याप्त हैं — षट्कर्म, शुद्धि सिंचन, दशविध स्नान एवं प्राण आवाहन के पश्चात प्राण प्रतिष्ठा। उनकी वेबसाइट पर मंदिर के पूर्ण निर्माण की शर्त नहीं बताई गई है।
इसी श्रृंखला में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक, नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा के उपाध्यक्ष व इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के ट्रस्टी एवं कार्यकारणी सदस्य प्रोफेसर भरत गुप्त का कहना है कि अविमुक्तेश्वरानंद की बात यदि मानी गई होती तो प्राचीन भारत के कई भव्य मंदिर बन ही नहीं पाते क्योंकि उनके निर्माण का आदेश देने वाले तत्कालीन शासक (राजा) इतनी लंबी प्रतीक्षा नहीं करते।
भारतीय विद्वत् परिषद् में अपनी बात रखते हुए प्रो० गुप्त ने लिखा —
स्वयं देव-देवियों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा
अब प्रश्न उठता है कि क्या मंदिर रूपी किसी देवता के अंग-प्रत्यंग का विचार किए बिना कई देवी-देवताओं ने पृथक पृथक धार्मिक क्षेत्रों में प्राण प्रतिष्ठा की? मान्यता है कि बद्रीनाथ में कठोर ठंडी जलवायु का सामना कर रहे विष्णु को ऊष्मा प्रदान करने के लिए लक्ष्मी ने बद्री वृक्ष का रूप धारण किया जिससे पूर्व बद्रीनाथ में विष्णु का कोई मंदिर नहीं था।
इस शृंखला में सबसे लोकप्रिय कथा है तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस जिसमें राम ने स्वयं बिना किसी मंदिर के रामेश्वरम में लिंग स्थापित किया था।
शिव पुराण (स्कन्द पुराण) की बात करें तो 2.1.13 में मंदिरों के साथ और उनके बिना अलग-अलग प्राण प्रतिष्ठा के नियम बताए गए हैं। देवालय के बिना अनुष्ठान भूतशुद्धि के बाद किया जाता है, वहीं देवालय के रहते दिक्पाल की स्थापना के पश्चात मूलमंत्र द्वारा प्राण प्रतिष्ठा होती है। क्या शिव मंदिर के गर्भगृह और दिक्पालों के आसपास एक पूर्ण-कार्यात्मक अट्टालिका होनी चाहिए? इसका उल्लेख नहीं किया गया है।
अब सामान्य मनुष्य की बात करते हैं। पहले एक ब्रह्मर्षि की बात और फिर मामूली डकैतों की। तारापीठ के बारे में किंवदंतियों का कहना है कि माँ तारा की पूजा सबसे पहले ब्रह्मर्षि वशिष्ठ ने की थी जबकि बीरभूम ज़िले के रामपुरहाट उपखंड में उपस्थित आज का तांत्रिक मंदिर निश्चित रूप से एक आधुनिक निर्माण है। वशिष्ठ का मंदिर कहाँ गया? [स्रोत — देवी भागवत पुराण, अध्याय 40]
डकैतों ने पूरे बंगाल में कई काली मंदिरों की स्थापना की लेकिन उन्हें आश्रय देने के लिए कोई मंदिर नहीं था। आज बंगाल के जिन काली मंदिरों को प्राचीन बताया जाता है, उनका निर्माण कुछ सदियों पहले ही हुआ था। यदि शास्त्र की बात करें तो देवी महात्म्य में नियम बस इतना है कि एक बिना पकाई हुई मिट्टी का प्रारूप बनाया जाता है और नवपात्रपूजा के आह्वान के साथ उस आकृति में प्राण का संचार किया जाता है।
गणपति परंपरा में प्राणप्रतिष्ठा के बाद षोडशोपचार पर बल दिया जाता है जबकि मंदिर की कोई शर्त निर्दिष्ट नहीं की गई है।
चूंकि अयोध्या में राम मंदिर है, इसलिए इसे वैष्णव परंपरा का पालन करना चाहिए। इसका विवरण यहाँ दिया गया है। कोई फ़ाइल का अध्ययन कर बताए कि यह कहाँ लिखा है कि प्राण प्रतिष्ठा मंदिर का निर्माण पूरा होने के बाद ही हो सकती है? यदि उद्धृत लेख संतोषजनक नहीं है तो किसी और आधिकारिक वैष्णव पाठ का हवाला भी आप दे सकते हैं। [शोध के अन्य स्रोत — श्रीहर्ष का नैषध चरित्र (नल-दमयंती युगल द्वारा मंदिर निर्माण); भगवद्गीता रहस्य या कर्मयोग शास्त्र (अध्याय 13, भक्ति मार्ग)]
अयोध्या में क्या वास्तु शास्त्र का उल्लंघन हो रहा है?
“वास्तुशास्त्र” नामक कोई प्राचीन ग्रन्थ है ही नहीं। फेंगशुई के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए इस शब्द को हाल ही में बनाया गया हालांकि प्राचीन भारत में वास्तुकला और आगम शास्त्र थे जो एक पुस्तक में नहीं बल्कि कई उपनिषद, ऐतिहासिक और पौराणिक ग्रंथों में विभाजित थे।
कोई भी आगम यह नहीं कहता कि प्राण प्रतिष्ठा से पहले पूरे मंदिर का निर्माण पूरा करना एक पूर्व शर्त है। अग्नि पुराण, विश्वामित्र संहिता, क्षीरर्णव, विष्णु संहिता, नारद संहिता, विष्णुधर्मोत्तर पुराण और मध्यकालीन प्रतिष्ठामायुख सरीखे ग्रंथों को जो अविमुक्तेश्वरानंद ने अपनी पीठ से लिखित बयान में उद्धृत तो किया है, उससे अधिक से अधिक यही प्रमाणित होता है कि एक बार जब मंदिर बन जाता है, तब उसे देव का स्थूल रूप माना जाता है। कथन का अर्थ यह नहीं है कि देवता की आत्मा के परिचायक मूर्ति से पहले स्थूलरूप को पूरा किया जाना चाहिए।